Tuesday, January 25, 2011

पत्रकारिता का बदलता स्वरुप.................. (शिव शंकर)

पत्रकारिता जो की लोकतंत्र का स्तम्भ है, जिसकी समाज के प्रति एक अहम भूमिका होती है, ये समाज में हो
रही बुराईयों को जनता के सामने लाता है तथा उन बुराईयों को खत्म करने के लिए लोगो को प्रेरित करता है। पत्रकारिता समाज और सरकार के प्रति एक ऐसी मुख्य कड़ी है, जो कि समाज के लोगो और सरकार को आपस में जोड़े रहती है। वह जनता के विचारों और भावनाओं को सरकार के सामने रखकर उन्हे प्रतिबिंबित करता है तथा लोगो में एक नई राष्टीय चेतना जगाता है।

पत्रकारिता के विकाश के सम्बन्ध में यदि कोई जानकारी प्राप्त करनी है तो हमें स्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले की पत्रकारिता को समझना होगा । पत्रकारिता के विकाश के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि 19 वीं शताब्दी के पूर्वान्ह में भारतीय कला ,संस्कृति, साहित्य तथा उधोग धन्धों को ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नष्टकर दिया था, जिसके कारण भारत में निर्धनता व दरिद्रता का साम्राज्य स्थापित हो गया।
इसे खत्म करने के लिए कुछ बुद्विजीवियो ने समाचार पत्र का प्रकाशन किया । वे समाचार पत्रो के माध्यम से देश के नवयुवको कें मन व मस्तिष्क में देश के प्रति एक नई क्रांति लाना चाहते थे, इस दिशा में सर्वप्रथम कानपुर के निवासी पंडित युगल किशोर शुक्ल ने प्रथम हिन्दी पत्र उदन्त मार्तण्ड नामक पत्र 30 मई , 1926 ई. में प्रकाशित किया था। ये हिन्दी समाचार पत्र के प्रथम संपादक थे यह पत्र भारतियो के हित में प्रकाशित किया गया था। ये हिन्दी समाचार पत्र के प्रथम संपादक के पूर्व कि जो पत्रकारिता थी वह मिशन थी , किन्तु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की पत्रकारिता व्यावसायिक हो चुकी है।


हमारे देश में हजारो ऐसी पत्र-पत्रिकायें छप रही है जिसमें पूंजीपति अपने हितो को ध्यान में रखकर प्रकाशित कर रहे है। आधुनिक युग में जिस तरह से पत्रकारिता का विकाश हो रहा है, उसने एक ओर जहां उधोग को बढावा दिया है, वही दूसरी ओर राजनीति क्षेत्र में भी विकसित हो रहा है। जिसके फलस्वरूप राजनीतिज्ञ और राजनीतिक दल बड़ी तेजी से बढ रहे है, इन दोनों शक्तियों ने स्वतंत्र सत्ता बनाने के लिए पत्रकारिता के क्षेत्र में पूंजी और व्यवसाय का महत्व बढ़ता गया । एक समय ऐसा था जब केवल समाचार पत्रों में समाचारों का महत्व दिया जाता था। किन्तु आज के इस तकनीकी और वैज्ञानिक युग में समाचार पत्रो में विज्ञापन देकर और भी रंगीन बनाया जा रहा है।


इन रंगीन समाचार पत्रो ने उधोग धंधो को काफी विकसित किया है। आज हमारें देश में साहित्यिक पत्रिकाओं की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उनके पाठकों व प्रशंसकों की हमेशा कमी थी। यही वजह थी की ये पत्रिकायें या तो बन्द हो गई या फिर हमेशा धन का अभाव झेलती रही । यह इस बात का प्रमाण है कि आज इस आधुनिक युग में जिस तरह से समाचार पत्रो का स्वरूप बदला है, उसने पत्रकारिता के क्षेत्र को भी परिवर्तित कर दिया है। समाचार चैनलों ने टी. आर. पी को लेकर जिस तरह से लड़ायी कर रहे है, उसे देखते हुए आचार संहिता बनानी चाहिए और इसे मीडीया को स्वयं बनाने की आवश्यकता है, क्योंकि आदर्श जनतंत्र में यह काम किसी सरकार के हाथों में नहीं दिया जा सकता है। उसे अपने हर खबरो को जनतंत्र के मूल्यों व समाजिक राष्टीय हितो की कसौटी पर कसना होगा , यही सेंसरशिप है, जिसकी पत्रकारिता को जरूरत है।

पत्रकारिता वास्तव में जीवन में हो रही विभिन्न क्रियाकलापों व गतिविधियों की जानकारी देता है। वास्तव में पत्रकारिता वह है जो तथ्यों की तह तक जाकर उसका निर्भिकता से विश्लेशण करती है और अपने साथ सुसहमति रखने वाले व्यक्तियों और वर्गो को उनके विचार अभिव्यक्ति करने का अवसर देती है।

ज्ञात रहे कि पत्रकारिता के माध्यम से हम देश में क्रान्ति ला सकते है, देश में फैली कई बुराईयो को हमेशा के लिए खत्म कर सकते है। अत: पत्रकारिता का उपयोग हम जनहित और समाज के भलाई के लिए करें न कि किसी व्यक्ति विशेष के पक्ष में। पत्रकारिता की छवी साफ सुथरी रहे तभी समाज के कल्याण की उम्मीद कर सकते है।

Monday, January 24, 2011

लडकियों के शिक्षा के अधिकार का सच ... ..... ( शिव शंकर)

भारत में ६ से १४ साल तक के बच्चो के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार का कानून भले ही लागू हो चुका हो, लेकिन इस आयु वर्ग की लडकियों में से ५० प्रतिशत तो हर साल स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाति है। जाहिर है,इस तरह से देश की आधि लडकियां कानून से बेदखल होती रहेगी। यह आकडा मोटे तैर पर दो सवाल पैदा करते है। पहला यह कि इस आयु वर्ग के १९२ मिलियन बच्चों में से आधी लडकिया स्कुलो से ड्राप-आउट क्यो हो जाती है ? दूसरा यह है कि इस आयु वर्ग के आधी लडकिया अगर स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाती है तो एक बडे परिद्श्य में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून का क्या अर्थ रह जाता है ?
इंटरनेशनल लेबर आर्गेनाइजेशन(१९९६) की एक रिपोर्ट में बताया गया था कि दुनिया भर में ३३ मिलियन लडकिया काम पर जाती है,जबकि काम पर जाने वाले लडको की संख्या ४१ मिलियन है। लेकिन इन आकडो मे पूरे समय घरेलू काम काजो मे जूटी रहने वाली लडकियो कि संख्या नहीं जोडी गई थी ।

इसी तरह नेशनल कमीशन फाँर प्रोटेक्शन आँफ चिल्ड्रेन्स राइटस की एक रिपोर्ट में भी बताया गया है कि भारत मे ६ से १४ साल तक कि अधिकतर लडकियो को हर रोज औसतन ८ घंटे से भी अधिक समय केवल अपने घर के छोटे बच्चो को संभालने मे बिताना पडता है। सरकारी आकडो मे भी दर्शाया गया है कि ६ से १० साल तक कि २५ प्रतिशत और १० से १३ साल तक की ५० प्रतिशत (ठीक दूगनी) से भी अधिक लडकियो को हर साल स्कुलो से ड्राप- आउट हो जाना पडता है।

एक सरकारी सर्वेक्षण (२००८) के दौरान ४२ प्रतिशत लडकियों ने बताया कि वह स्कुल इस लिए छोड देती है कि क्योंकि उनके माता-पिता उन्हे घर संभालने और छोटे भाई बहनों की देखभाल करने के लिए कहते है,आखिरी जनगणना के मुताबिक ,२२.९१ करोड महिलाएं निरक्षर है,एशिया में भारत की महिला साक्षरता दर सबसे कम है।
एन्युअल स्टेटस आफ एजुकेशन रिपोर्ट (२००८) के मुताबिक ,शहरी और ग्रामीण इलाके की महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता दर क्रमशः ५१.१ प्रतिशत और ६८.४ प्रतिशत दर्ज हैं।

क्राई के एक रिपोर्ट के अनुसार,५ से ९ साल तक की ५३ प्रतिशत भारतीय लडकिया पढना नहीं जानती, इनमे से अधिकतर रोटी के चक्कर मे घर या बाहर काम करती है। ग्रामीण इलाकों में १५ प्रतिशत लडकियों की शादी १३ साल की उम्र में ही कर दी जाति है। इनमें से तकरीबन ५२ प्रतिशत लडकियां १५ से १९ साल की उम्र मे गर्भवती हो जाती है। इन कम उम्र की लडकियों से ७३ प्रतिशत (सबसे अधिक) बच्चे पैदा होते है। फिलहाल इन बच्चो में ६७ प्रतिशत (आधे से अधिक) कुपोषण के शिकार है। लडकियों के लिए सरकार भले हि सशक्तिकरण के लिए शिक्षा जैसे नारे देना जितना आसान है,लक्ष्य तक पहुंचना उतना ही कठीन।

दूसरी तरफ कानून मे मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार कह देने भर से अधिकार नहीं मिल जाएगा, बलिक यह भी देखना होगा कि मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के अनुकूल ।खास तौर से लडकियो के लिए ,भारत में शिक्षा की बुनियादी संरचना है भी या नहीं ।आज ६ से १४ साल तक के तकरीबन २० करोड भारतीय बच्चो की प्राथमिक शिक्षा के लिए पर्याप्य स्कूल ,कमरे , प्रशिक्षित शिक्षक और गुणवतायुक्त सुविधाएं नहीं है, देश की ४० प्रतिशत बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं और इसी से जुडा एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ४६ प्रतिशत सरकारी स्कूलो में लडकियों के लिए शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है।

मुख्य तौर पर सामाजिक धारणाओं,घरेलू कामकाजो और प्राथमिक शिक्षा में बुनियादि व्यवस्था के अभाव के चलते एक अजीब सी विडंबना हमारे सामने हैकि देश की आधी लडकियों के पास अधिकार तो हैं,मगर बगैर शिक्षा के । इसलिए इससे जुडे अधिकारो के दायरे में लडकियों की शिक्षा को केंद्रीय महत्व देने की जरुरत है, माना कि यह लडकिया अपने घर से लेकर छोटे बच्चों को संभालने तक के बहुत सारे कामों से भी काफी कुछ सीखती है। लेकिन अगर यह लडकियां केवल इन्ही कामों में रात- दिन उलझी रहती है ,भारी शारीरिक और मानसिक दबावों के बीच जीती हैं,पढाई के लिए थोडा सा समय नहीं निकाल पाती हैं और एक स्थिति के बाद स्कुल से ड्राप्आउट हो जाती है तो यह देश की आधी आबादी के भविष्य के साथ खिलवाड ही हुआ।

आज समय की मांग है कि लडकियों के पिछडेपन को उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि उनके खिलाफ मौजूद परिस्थतियो के रुप में देखा जाए। अगर लडकी है तो उसे ऐसे ही रहना चाहिए ,जैसे बातें उनके विकाश के रास्ते में बाधा बनती हैं। लडकियों की अलग पहचान बनाने के लिए जरुरी है कि उनकी पहचान न उभर पाने के पीछे छिपे कारणो की खोजबीन और भारतीय शिक्षा पद्दती ,शिक्षकों की कार्यप्रणाली एवं पाठ्यक्रमों की पुनर्समीक्षा की जाए ,लडकियों की शिक्षा से जुडी हुई इन तमाम बाधाओं को सोचे- समझे और तोडे बगैर शिक्षा के अधिकार का बुनियादी मकसद पूरा नहीं हो सकता है ।

Sunday, January 23, 2011

ब्रह्म हत्या से बडा़ पाप कन्या भ्रूण हत्या




जिसकी सेवाए त्याग एवं ममता की छॉंव में पलकर पूरा परिवार विकसित होता है, उसके आगमन पर पूरे परिवार में मायूसी एवं शोक के वातावरण का व्याप्त हो जाना विडंबनापूर्ण अचरज ही है। कन्या - जन्म के साथ ही उस पर अन्याय एवं अत्याचार का सिलसिला शूरू हो जाता है। अपने जन्म के परिणामों एवं जटिलताओ से अनभिज्ञ उस नन्हीं - सी जान के जन्म से पूर्व या बाद में उपेक्षा , यहॉं तक कि हत्या भी कर दी जाती है।

लोगो में बढती पुत्र- लालसा और खतरनाक गति से लगातार घटता स्त्री, पुरूष अनुपात आज पूरे देश के समाजशास्त्रियोए, जनसंख्या विशेषज्ञों , योजनाकारो तथा समाजिक चिंतकों के लिए चिंता का विषय बन गया है। जहॉ एक हजार पुरूषों में इतनी ही मातृशक्ति की आवश्यकता पडती है, वही अब कन्या - भ्रूण हत्या एवं जन्म के बाद बालिकाओं की हत्या ने स्थिति को विकट बना दिया है। आज लोगो में पहले से ही लिंग जानने से भ्रूण हत्या में इजाफा हो रहा है। लोग पता लगा कर कन्या भ्रूण को नष्ट कर देते है। गर्भपात करना बहुत बडा कुकर्म और पाप है। शास्त्र में भी कहा गया है कि गर्भपात अनुचित है, संस्कृति में इस संदर्भ में एक श्लोक है ।
यत्पापं ब्रह्महत्यायां द्विगुणं गर्भपातनेए प्रायश्चितं न तस्यास्ति तस्यास्त्यागो विधीयते श्श्
ब्रह्म हत्या से जो पाप लगता है, उससे दुगुना पाप गर्भपात से लगता है। इसका कोई प्रायश्चित नहीं है

आज भी प्रत्येक नगर एवं महानगर में प्रतिदिन भ्रूण हत्या हो रही है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि समाजसेवी संस्था, और वैधानिक प्रावधान भी इस क्रुर पद्धति को रोकने में अक्षम है। किसी जमाने में बालिकाओ को पैदा होते ही मारे जाने और अपशकुन समझे जाने का अभिशाप झेलना पडता था, लेकिन वर्ममान में भी लोगो मे कन्या को जन्म से पहले या जन्म के बाद भी मारने में कोइ भी परिवर्तन नहीं आया है। लोग इस तरह बालिकाओ को जन्म से पहले नष्ट करते रहे तो मनुष्य जाति का विनाश जल्द ही निश्चित है। कन्या भ्रूण हत्या इतने तेजी के साथ हो रहा है कि वर्तमान मे स्त्री - पुरूष अनुपात भी कई राज्यो में भिन्न भिन्न स्थिति में पाये जा रहे है।

आज स्त्रियो का अनुपात दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है जो आगे चलकर मनुष्य जाति के लिए विनाश का कारण बनेगीं। अभी जल्द ही भारत सरकार द्धारा कराये जनगणना 2010- 2011 के अनुसार स्त्री- पुरूष अनुपात का आकडा जो पेश किया गया वो चिन्ता का विषय बना हुआ है। भारत में लिंगानुपात पुरूषो के मुकाबले स्त्रियो का कम है। ये अनुपात कम होने का सबसे बडा कारण बडे पैमाने पर हो रहे कन्या भ्रूण हत्या है ।

भारत में 1000 पुरूषो के मुकाबले महिलाये 933 है, ग्रामीण स्तर पर 946 और नगरीय महिला अनुपात 900 है। ये आकडा तो पूरे भारत का था। राज्यो में स्त्रियो के सबसे अधिक अनुपात वाला राज्य केरल 1058 है। स्त्रियों के सबसे कम अनुपात वाला राज्य हरियाणा 861 है। संघ राज्य क्षेत्रो में सबसे अधिक अनुपात पाण्डिचेरी का 1001 है और सबसे कम दमन और दीव का 710 है।
संघ राज्य क्षेत्रो के जिलो में सबसे अधिक माहे (पाण्डिचेरी) 1147 और सबसे कम दमन का 591 है।

इन आकडो को देख कर हम अनुमान लगा सकते है कि भारत में महिलाओं का अनुपात किस प्रकार घटता जा रहा है।
अगर सरकार जल्द कोई ठोस कदम नहीं उठाती है तो देश में बहुत गहन समस्या उत्पन हो सकती है। कई राज्यों में कन्या के जन्म को लेकर कई भ्रांतिया है जैसे- तमिलनाडु के मदुरै जिले के एक गॉंव में कल्लर जाति के लोग घर में कन्या के जन्म को अभिशाप मानते हैं। इसलिए जन्म के तीन दिन के अन्दर ही उसे एक जहरीले पौधे का दूध पिलाकर या फिर उसके नथुनों में रूई भरकर मार डालते हैं। भारतीय बाल कल्याण परिषद् द्धारा चलाई जा रही संस्था की रिपोर्ट के अनुसार इस समुदाय के लोग नवजात बच्ची को इस तरह मारते है , कि पुलिस भी उनके खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं कर पाती ।
जन्म लेते ही कन्या के भेदभाव की यह मानसिकता सिर्फ असभ्य , अशिक्षित एवं पिछडे लोगो की नहीं है, बल्कि कन्या अवमूल्यन का यह प्रदूषण सभ्य, शिक्षित एवं संभ्रांत कहे जाने वाले लोगो में भी सामान्य रूप से पाया जाता है। शहरों के तथाकथित विकसित एवं जागरूकता वाले माहौल में भी इस आदिम बर्बता ने कन्या भ्रूणों की हत्या का रूप ले लिया है। इसे नैतिक पतन की पराकाष्ठा ही कह सकते है कि जीवन रक्षा की शपथ लेने वाले चिकित्सक ही कन्या भ्रूणों के हत्यारे बने बैठे है।


अस्तित्व पर संकट के अतिरिक्त बालिकाओ को पोषणए स्वास्थए शिक्षा आदि हर क्षेत्र में भेदभाव का शिकार होना पडता है।वास्तव में अभिभावकों की संकीर्ण मानसिकता एवं समाज की अंध परंपराएं ही वे मूल कारण हैं जो पुत्र एवं पुत्री में भेद भाव करने हेतू बाध्य करते हैं। हमारे रीति - रिवाजों एवं समाजिक व्यवस्था के कारण भी बेटा और बेटी के प्रति सोच में दरार पैदा हुई है।
अधिकांश माता - पिता समझते है कि बेटा जीवनपर्यंत उनके साथ रहेगा उनका सहारा बनेगा । हलांकि आज के समय में पुत्र को बुढापे का लाठी मानना एक धोखा ही है। लडकियों के विवाह में दहेज की समस्या के कारण भी माता - पिता कन्या जन्म के स्वागत नहीं कर पाते । समाज में वंश - परंपरा का पोषक लडको को ही माना जाता है। ऐसे में पुत्र कामना ने मानव मन को इतनी गहराई तक कुंठीत कर दिया है कि कन्या संतान की कामना या जन्म दोनो अब अनेपेक्षित माना जाने लगा हैं।

भारत सरकार ने एक राष्टीय कार्य योजना बनाई है, जिसका मुख्य उद्देश्य पारिवारिक एवं समाजिक परिवेश में बालिकाओं के प्रति सामानतापूर्ण व्यवहार को बढावा देना है। सरकारी कार्यक्रमों गैर सरकारी संगठनों के प्रयास एवं मीडिया के प्रचार - प्रसार से कुछ हद तक जनमानस में बदलाव अवश्य आया है , परंतु निम्न मध्यम वर्ग एवं गरीब परिवारो में अभी भी लैंगिक भेद भाव जारी है। जहॉं बालिकाओ का जीवन पारिवारिक उपेक्षा , असुविधा एवं प्रोत्साहनरहित वातावरण में व्यतीत होता है। जहॉं उनका शरीर प्रधान होता है, मन नहीं। समर्पण मुख्य होता है, इच्छा नहीं। बंदिश प्रमुख है, स्वतंत्रता नहीं।


बदलते हुए वातावरण के साथ अब ऐसी मान्याताओ से उपर उठना होगा। बालिकाओं के प्रति अपनी सोच बदलनी होगी। अब तक किये गए शोषण और उपेक्षा के बाद भी जहॉं भी उन्हे मौका मिला है वे सदा अग्रणी रही हैं। इक्कीसवीं सदी नारी वर्चस्व का संदेश लेकर आई हैं।अगर हम अब भी सचेत नहीं हुए तो हमें इसकी कीमत चुकानी पडेगी । अगर हम अपनी सोच नही बदले तो फिर भविष्य में हमें राष्ट्पति प्रतिभा पाटिल , लोक सभा अध्यक्ष मीरा कुमार और मायावती जैसी सफल महिला हस्तियों से वंचित होना पडेगा। इस लिए समाज में फैले कन्या भ्रूण हत्या जैसे पाप को रोकने के लिए जल्द से जल्द सफल प्रयास करना चाहिए ।




Saturday, January 22, 2011

आत्म-निर्माण से ही राष्ट् निर्माण संभव






बीतेंवर्ष भारत में हुए कई घोटालो और भ्रष्टाचारो से देश जूझतां रहा । हमें लोभ और मोह के आवांछनीय अंधकार से उपर उठना चाहिए। परिवार के लालन-पालन के लिए,शरीर निर्वाह के लिए हमें उचित की सीमा में ही रहकर कार्य करना चाहिए । लोभवश द्यन कुबेर बनने की आकांक्षा से और स्त्री-बच्चो को राजा, रानी बनाने की संकीर्ण मानसिकता से उपर उठना चाहिए । अपना उत्तरदायी आत्मकल्याण का भी है, और समाज का ऋण चुकाने का भी। भौतिक पक्ष के उपर सारा जीवन रस टपका दिया जाए और आत्मिक पक्ष प्यासा ही रहे , ये जीवन का अत्यंत भयंकर दुर्भाग्य और कष्टकारी दुर्घटना होगी । हमें नित्य ही लेखा जोखा लेते रहना चाहिए कि भौतिक पक्ष को हम आधे से अधिक महत्व तो नहीं दे रहे है। कहीं आत्मिक पक्ष के साथ अन्याय तो नहीं हो रहा है।

ज्ञात रहे कि आत्म निर्माण से ही राष्ट् निर्माण संभव है। हम अकेले चलें। सूर्य चंद्र की तरह अकेले चलने मे हमें तनिक भी संकोच न हो । अपने आस्थाओ को दूसरे के कहें सुने अनुसार नहीं वरन् अपने स्वतंत्र चिंतन के आधार पर विकसित करें। अंधी भेड़ो की तरह झुंड का अनुगमन करने की मनोवृति छोड़ें। सिंह की तरह अपना मार्ग अपनी विवेक चेतना के आधार पर स्वयं निर्द्यारित करें। सही को अपनाने और गलत को छोड़ देने का साहस ही युग निर्माण परिवार के परिजनों की वह पूंजी है जिसके आधार पर वे युग साधना के वेला में ईश्वर प्रदत उत्तरदायित्व का सही रीति से निर्वाह कर सकेगें। अपने अन्दर ऐसी क्षमता पैदा करना हमारे लिए उचित भी है और आवश्यक,भी।
हमें भली प्रकार समझ लेना चाहिए ईटां का समूह इमारत के रूप में; बूंदो का समूह समुन्द्र के रूप में , रेशो का समूह रस्सो के रूप में दिखाई पड़ता है। मनुष्यों के संगठीत समूह का नाम ही समाज है। जिस समय के मनुष्य जिस समाज के होते है वैसा ही समूह, समाज, राष्ट् और विश्व बन जाता है। युग परिवर्तन का मतलब है मनुष्यों का वर्तमान स्तर बदल देना ।
यदि लोग उत्कृष्ट स्तर पर सोचने लगे तो कल ही उसकी प्रतिक्रिया स्वर्गीय परिस्थितियो के रूप में सामने आ सकती है। युग परिवर्तन का आधार,जनमानस का स्तर उचा उठा देना । युग निर्माण का अर्थ है भावनात्मक नवनिर्माण । अपने महान अभियान का केन्द्र बिन्दु यही है। युग परिवर्तन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कार्य,व्यक्ति निर्माण से आरंभ करना होगा और इसका सबसे प्रथम कार्य है आत्मनिर्माण । दुसरो का निर्माण करना कठिन ही है। दुसरे आप की बात न माने ये संभव है लेकिन अपने को तो अपनी बात मानने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए। हमें नवनिर्माण का कार्य यही से प्रारंभ करना चाहिए। अपने आप को बदलकर युग परिवर्तन का शुभारंभ करना चाहिए।

प्रभावशाली व्यक्तित्व अपनी प्रखर कार्यपद्धती से दुसरो को अपना अनुवायी बनाते है।संसार में समस्त महापुरूषो का यही इतिहास रहा है। उन्हे दुसरो से जो कहना था या कराना था उसे वे स्वंय करके उनके सामने उदाहरण प्रस्तुत किये और अपनी बात मनाने में सफलता प्राप्त की।
बुद्ध ने स्वयं घर त्यागा तो उनके अनुवायी करोड़ो युवक,युवतियां उसी मार्ग पर चलने के लिए तैयार हो गए। गांधी जी को जों दूसरो से कराना था; पहले उन्होने उसे स्वयं किया। यदि वे केवल उपदेश देते और अपना आचरण विपरीत प्रकार का रखते तो,उनके प्रतिपादन को बुद्धिसंगत भर बताया जाता, कोई अनुकरण करने को तैयार न होता । जहॉ तक व्यक्ति के परिवर्तन का प्रश्न है वह परिवर्तित व्यक्ति का आदर्श सामने आने पर ही संभव है। बुद्ध; गॉधी और हरिश्चंद्र आदि ने अपने को सॉचा बनाया तब कहीं दूसरे खिलौने , दूसरे व्यक्त्वि उसमें ढलने शुरू हुए ।

युग निर्माण परिवार के हर सदस्य को यह देखना है कि वह लोगो को क्या बनाना चाहता है; उनसे क्या कराना चाहता है। उसे उसी कार्य पद्धति को, विचार शैली को पहले अपने उपर उतारना चाहिए, फिर अपने विचार और आचरण का सम्मिश्रण एक अत्यंत प्रभावशाली शक्ति उत्पन्न करेगा । अपनी निष्ठा कितनी प्रबल है इसकी परीक्षा पहले अपने उपर ही करनी चाहिए।यदि आदर्शो को मनवाने के लिए अपना आपा हमने सहमत कर लिया तो निसंदेह अगणीत व्यक्ति हमारे समर्थक , सहयोगी, अनुवायी बनते चले जायेगें। फिर युग परिवर्तन अभियान में कोई व्यवधान शेष न रह जायेगा ।

व्यक्तिगत जीवन में हर मनुष्य को व्यवस्थित; चरित्रवान , सद्गुणी सम्पन्न बनाने की अपनी शिक्षा पद्धति है। उसे हमें व्यवहारिक जीवन में उतारना चाहिए । समय की पाबंदी, नियमितता; श्रमशीलता, स्वच्छता, वस्तुओं की व्यवस्था जैसी छोटी-छोटी आदतें ही उसके व्यक्त्वि को निखारती उभारती है।
युग परिवर्तन का अर्थ है , व्यक्ति परिवर्तन और यह महान प्रक्रिया अपने से आरंभ होकर दुसरो पर प्रतिध्वनित होती है। यह तथ्य हमें अपने मन , मस्तिष्क में बैठा लेना चाहिए कि दुनियॉ को पलटना जिस उपकरण के माध्यम से किया जा सकता है वह अपना व्यक्त्वि ही है। भले ही प्रचार और भाषण करना न आये पर यदि हम अपने को ढालने में सफल हो गये उतने भर में भी हम असंख्य लोगो को प्रभावित कर सकते है। अपना व्यक्त्वि हर दृष्टि में आदर्श उत्कृष्ट और सुधारने बदलने के लिए हम चल पड़े तो निश्चित रूप से हमें निर्धारित लक्ष्य तक पहुचने में तनिक भी कठिनाई न होगी।
अतः प्रत्येक व्यक्ति अपने विकाश के लिए ही प्रयत्न करे और अपने को अच्छे इन्सान की तरह लोगो के सामने पेश करें तो वो दिन दूर नहीं जब हम एक अच्छे और सम्पन्न राष्ट् का निर्माण करेगें ।


Friday, January 21, 2011

आतंकवाद की बर्बरता


आज विश्व, आतंकवाद के जाल मे बुरी तरह फसा हुआ है। न केवल एक देश ,बल्कि समस्त विश्व इसके क्रुर , निर्दयी एवं बर्बरता मे छटपटा रहा है। आतंक,लूटपाट,अपहरण और कत्लेआम से सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है।आतंकवाद प्रतिदिन प्रातः बम के धमाके से प्रारंभ होता है और वीभत्स एंव ह्दयविदारक नरसंहार को देख अट्टाहास करता है,उत्सव मनाता है। आतंक का यह अंतहीन सिलसिला कहीं भी थमता नजर नहीं आता है। समाधान के स्वर विकट आतंक के इस दौर में उभरते भी हैं,तव भी आशा की कोई किरण नजर नहीं आती हैं।

यह आतंकवाद विकृत एवं वीभत्स मानसिकता का परिचायक है।आज की परिस्थिति में किसी भी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हिंसक ,अलोकतांत्रिक ,अमानवीय तथा अवैध तरीकों का प्रयोग कर मनुष्य में आतंक फैलाना ही आतंकवाद है,परंतु यह इन बिंदुओ में ही सिमटा हुआ नहीं है। आज इसे अनेक रूपों में देखा जा सकता है। कुछ संगठनो द्वारा भी यह जन्म लेता है और सत्ताधारियों की कोख से भी।यह कहीं धार्मिक संगठनों की हिंसक गतिविधियों के रूप में, तो कहीं धार्मिक संगठनो की हिंसक गतिविधियों के रूप में, तो कहीं उग्र राजनीतिक विचारधाराओं के बीच हथियारबंद संघर्ष के रूप में तथा कहीं क्षेत्रीय समस्याओं को लेकर मुखर हुए हिंसक गिरोहों के रूप में पनपता है।आतंकवाद भाषाई ,सांस्कृतिक,धार्मिक व आर्थिक विषमताओं की प्रतिक्रियास्वरूप जन्मे संगठनों के स्वरूपों में भी परिलक्षित होता है।

आतंकवाद का इतिहास कोई नया नहीं है। प्राचिनकाल मे भी एक मजबूत कबिला,छोटे कबिलो वाले पर आक्रमण कर हिंसा फैलाते थे।लेकिन उस समय विजेताओ द्ारा केवल आतंक मचाना मात्र था कोई विशेष उददेश्य‌‍‍ न था,लेकिन वर्तमान मे हिंसा फैला कर कई अपने लाभ के कार्य किये जाते है।

आतंकवादी हिंसा व हत्या को पैदा करने के लिए आधुनिक युग की दो परस्पर विरोधी विचारधाराओ की भूमिका महत्वपूर्ण है। ये हैं समाजवादी दर्शन तथा पूंजीवादी लोकतंत्र। संसार विचारधाराओ के दो खेमो मे बंट गया है। समाजवादी पक्ष ने प्रचार एवं शक्ति के सहारे विश्व भर में अपने आपको फैलाना चाहा। दूसरी ओर पूंजीवादी लोकतंत्र ने उसके बढते कदमो को रोकने के लिए बल प्रयोग का सहारा लिया। शीतयुध्द इसी का परिणाम है।शस्त्रों की होड एवं उसके भारी उत्पादन के पीछे यही मुख्य कारण है।
हथियारो की इसी सर्वनाशी होड ने उग्रवाद को एक नई पहचान दी,जो आज हिंसा ,लूटपाट मचाकर समस्त विश्व में फैल गया है।
दूसरी ओर समाजवादी विचारधारा के विरूध्द पूंजीवादी खेमे की खडी की गई गुप्तचर एजेंसियां तथा अन्य विध्वंसक शक्तियां भी पूर्णरूपेण सक्रिय हो गई ।

आतंकवाद की ये खुली आंधी आज विश्व के हर कोने मे फैली हुई है। खासकर अपना देश तो इस आग में हिचकोले खाता नजर आ रहा है। विश्व के तमाम देशों में आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं और भीषण लूटपाट कर रहे है।अपना देश तो पिछले कई सालो से आतंकवाद के चपेट में है। उत्तरपूर्वी भारत,बिहार,आन्ध्रप्रदेश तथा छत्तीसगढ इस ज्वाला मे जल रहे है। पंजाब में उग्रवादियो
के खूनी खेल के थमते ही कश्मीर उस आाग मे धधक उठा।
अब तो पहले कभी धरती को स्वर्ग कही जाने वाली इस वादी में प्रतिदिन बम के धमाकों के बीच क्षत विक्षत फैले मानव अंग ,बिलखती आावाजे सामान्य सी बात हो गई है।

आतंकवाद किसी तरह का हो,आतंकवादी कोई भी हो,पर वे इन्सान और इन्सानियत के दुश्मन हैं। बेगुनाहो के खून से यदि कुछ मिल भी जाए,तो वह कभी भी सुखद नहीं होता ।आतंकवाद की समस्या से निपटने का समाधान राजनैतिक से कहीं ज्यादा सांस्कृतिक है।सांस्कृतिक संवेदना ही आतंकवाद से बंजर होती जा रही धरती और देश को फिर से हरा भरा एवं खुशहाल बना सकती है।
















Monday, January 17, 2011

युवा बनाम भारतीय संस्कृति



एक समय था जब हमारे युवाओं के आदर्श, सिद्धांत, विचार, चिंतन और व्यवहार सब कुछ भारतीय संस्कृति के रंग में रंगे हुए होते थे। वे स्वयं ही अपने संस्कृति के संरक्षक थे, परंतु आज उपभोक्तावादी पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध से भ्रमित युवा वर्ग को भारतीय संस्कृति के अनुगमन में पिछडेपन का एहसास होने लगा है। आज अंगरेजी भाषा और अंगरेजी संस्कृति के रंग में रंगने को ही आधुनिकता का पर्याय समझा जाने लगा है। जिस युवा पिढी के उपर देश के भविष्य की जिम्मेदारी है , जिसकी उर्जा से रचनात्मक कार्य सृजन होना चाहिए,उसकी पसंद में नकारात्मक दृष्टिकोण हावी हो चुका है। संगीत हो या सौंदर्य,प्रेरणास्त्रोत की बात हो या राजनीति का क्षेत्र या फिर स्टेटस सिंबल की पहचान सभी क्षेत्रो में युवाओं की पाश्चात्य संस्कृति में ढली नकारात्मक सोच स्पष्ट परिलछित होने लगी है।
आज मरानगरों की सडकों पर तेज दौडती कारों का सर्वेक्षण करे तो पता लगेगा कि हर दूसरी कार में तेज धुनों पर जो संगीत बज रहा है वो पॉप संगीत है। युवा वर्ग के लिए ऐसी धुन बजाना दुनिया के साथ चलने की निशानी बन गया है। युवा वर्ग के अनुसार जिंदगी में तेजी लानी हो या कुछ ठीक करना हो तो गो इन स्पीड एवं पॉप संगीत सुनना तेजी लाने में सहायक है।
हमें सांस्कृतिक विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत के स्थान पर युवा पीढी ने पॉप संगीत को स्थापित करने का फैसला कर लिया है।

नए गाने तो बन ही रहे है,साथ ही पुराने गानो को भी पॉप मिश्रत नए रंग रूप मे श्रोताओ के समक्ष पेश किये जा रहे है। आज बाजार की यह स्थिति है कि नई फिल्म के गानो का रिमिक्स यानि तेज म्यूजिक डाले गए कैसेट आ जाने के बाद संमान्य कैसेट के बिक्री में बहुत ज्यादा गिरावट आई है। आज सब कुछ पॉप में ढाल कर युवाओं को परोसा जा रहा है और पसंद भी किया जा रहा है। आज विदेशी संगीत चैनल युवाओं की पहली पसंद बनी हुई है। इन संगीत चैनलो के ज्यादा श्रोता 15 से 34 वर्ष के युवा वर्ग है। आज युवा वर्ग इन चैनलो को देखकर अपने आप को मॉडर्न और उचे ख्यालो वाला समझ कर इठला रहा है। इससे ये एहसास हो रहा है कि आज के युवा कितने भ्रमित है अपने संस्कृति को लेकर और उनका झुकाव पाश्चात्य संस्कृति की ओर ज्यादा है। ये भारतिय संस्कृति के लिए बहुत दुख: की बात है।

आज युवाओ के लिए सौंदर्य का मापदण्ड ही बदल गया है। विश्व में आज सौंदर्य प्रतियोगिता कराये जा रहे है, जिससे सौंदर्य अब व्यवासाय बन गया है। आज लडकिया सुन्दर दिख कर लाभ कमाने की अपेक्षा लिए ऐन -केन प्रकरण कर रही है। जो दया, क्षमा, ममता ,त्याग की मूर्ति कहलाती थी उनकी परिभाषा ही बदल गई है। आज लडकियां ऐसे ऐसे पहनावा पहन रही है जो हमारे यहॉ इसे अनुचित माना जाता है। आज युवा वर्ग अपने को पाश्चात्य संस्कृति मे ढालने मात्र को ही अपना विकाश समझते है।आज युवाओ के आतंरिक मूल्य और सिद्धांत भी बदल गये है। आज उनका उददेश्य मात्र पैसा कमाना है। उनकी नजर में सफलता की एक ही मात्र परिभाषा है और वो है दौलत और शोहरत । चाहे वो किसी भी क्षेत्र में हो । इसके लिए वो कुछ भी करने को तैयार है।

राजनीति का क्षेत्र भी युवाओ में आए मानसिक परिवर्तन से अछुता नहीं है। इतिहास पर दृष्टि डाले तो पता चलता है कि स्वतंत्रता संग्राम पूरी तरह युवाओ के त्याग,. बलिदान ,साहस व जटिलता पर ही आधारित था। अंगरेजो के शोषण, दमन और हिंसा भरी राजनीति से युवाओं ने ही मुक्ति दिलाई थी। भारतीय राजनीति के दमकते सूर्य को जब आपात काल का ग्रहण लगा तब इसी युवा पीढी ने अपना खून पसीना एक कर उनके अत्याचारो को सहते हुए अपने लोकतंत्र की रक्षा की थी। आज जबकि परिस्थितियॉ और चुनौतियॉ और ज्यादा विकट है एभारतीय राजनीति अकंठ भ्रष्टाचार में डूब चुकी है,देश आर्थिक गुलामी की ओर अग्रसर है, ऐसे में भ्रष्टाचार और कुशासन से लोहा लेने के बजाय समझौतावादी दृष्टिकोण युवाओ का सिद्धांत बन गया है। उनके भोग विलाश पूर्ण जीवन में मूत्यों और संघर्षो के लिए कही कोई स्थान नहीं है।

भारतीय संस्कृति में सदा से मेहनत, लगन, सच्चाई का मूल्यांकन किया जाता रहा है,परंतु आज युवाओ का तथाकथित स्टेटस सिंबल बदल चुका है, जिन्हे वो रूपयो के बदले दुकानो से खरीद सकते हे। कुछ खास . खास कंपनियों के कपडे, सौंदर्य. प्रसाधन एवं खाध सामग्री का उपयोग स्तर दर्शाने का साधन बन चुका है। महंगे परिधान ,आभूषण, घडी ,चश्मे, बाइक या कार आदि से लेकर क्लब मेंबरशिप, महॅंगे खेलो की रूचि तक स्टेटस. सिंबल के प्रदर्शन की वस्तुए बन चुकी है। संपन्नता दिखाकर हावी हो जाने का ये प्रचलन युवाओं को सबसे अलग एवं श्रेष्ठ दिखाने की चाहत के प्रतीक लगते हैं।

आखिर युवाओं की इस दिग्भ्रांति का कारण क्या है ?
इसका जवाब यही है कि कारण अनेक है। सबसे प्रमुख कारण है ,प्रचार -.प्रसार माध्यम ।युवा पीढी तो मात्र उसका अनुसरण कर रही है। आज भारत में हर प्रचार माध्यम के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता के स्थान पर पश्चिमी मानदंडों के अनुसार प्रतिद्धंद्धी को मिटाने की होड लगी हुई है। सनसनीखेज पत्रकारिता के माध्यम से आज पत्र. पत्रिकाए, ऐसी समाजिक विसंगतियो की घटनाओं की खबरो से भरी होती हैंए जिसको पढकर युवाओ की उत्सुकता उसके बारे में और जानने की बढ जाती है। युवा गलत तरह से प्रसारित हो रहे विज्ञापनों से इतने प्रभावित हो रहे है कि उनका अनुकरण करने में जरा भी संकोच नहीं कर रहें है।
अगर भारत सरकार को भरतीय संस्कृति की रक्षा करनी है तो ऐसे प्रसारणो पर सख्ती दिखानी चाहिए ,जो गलत ढंग से प्रस्तुत किये जाते हैं। इन प्रसारणो से समाज में गलत संदेश जाता है। इन्ही पत्र. पत्रिकाए ,विज्ञापनो को गलत ढंग से पेश कर समाज मे युवाओ को भ्रमित किया जाता है। अगर हमारी संस्कृति को प्रभावी बनाना है तो युवाओ को आगे आना होगा । लेकिन आज युवाओ का झुकाव पाश्चात्य संस्कृति की ओर है ,जो हमारे संस्कृति के लिए गलत है। आज सरकार और देशवासियो को मिलकर संस्कृति के रक्षा के लिए नए कदम उठाने की जरूरत आन पडी है,जिससे संस्कृति को बचाया जा सके।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है, लेकिन ये परिवर्तन हमें पतन के ओर ले जायेगा । युवाओ को ऐसा करने से रोकना चाहिए नहीं जिस संस्कृति के बल पर हम गर्व महसूस करते है, पूरा विश्व आज भारतीय संस्कृति की ओर उन्मूख है लेकिन युवाओं की दीवानगी चिन्ता का विषय बनी हुई है। हमारे परिवर्तन का मतलब सकारात्मक होना चाहिए जो हमे अच्छाई से अच्छाई की ओर ले जाए । युवाओ की कुन्ठीत मानसिकता को जल्द बदलना होगा और अपनी संस्कृति की रक्षा करनी होगी ।

आज युवा ही अपनी संस्कृति के दुश्मन बने हुए है। अगर भारतीय संस्कृति न रही तो हम अपना अस्तित्व ही खो देगें।संस्कृति के बिना समाज में अनेक विसंगतियॉं फैलने लगेगी ,जिसे रोकना अतिआवश्यक है। युवाओ को अपने संस्कृति का महत्व समझना चाहिये और उसकी रक्षा करनी चाहिए । तभी भारतीय संस्कृति को सुदृढ और प्रभावी बनाया जा सकता है।







Wednesday, January 5, 2011

सीबीआइ बनाम असफलता

ऐसा लगता है कि शीर्ष जाँच एजेंसी सीबीआइ को आदालत की डांट -फटकार से मुक्ति मिलने वाली नहीं है ।सीबीआइ को ताजा फटकार तो बहुचर्चित आरूषि तलवार कांड में मिली । आदालत ने पाया कि सीबीआइ आरूषि मामले मे बहुत जल्दबाजी में है ।इसकी सच्चाई जो भी रहा हो ,सीबीआइ को बीते दिनो छोटी-बडी आदालतो से मिलने वाली फटकार से,जनता को ये आभास होने लगा है कि ये भारत की सबसे बडी जांच एजेंसी दबाव मे काम करने की आदि हो गई है ।

बीते दिनो ही बोफोर्स दलाली मामले मे सीबीआइ ने जिस तरह ओट्टावियो क्वात्रोची के खिलाफ मामला बंद करने की दलील पेश की है वो लोगो के समझ से परे है । आयकर न्यायाधिकरण ने जो प्रमाण पेश किए है वो किसी आकलन का हिस्सा नहीं है बल्कि उसके आदर्श के उल्लेखनीय बिन्दु है । एसे प्रमाणो के बावजूद सीबीआइ यह दलील कैसे दे सकती है कि आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण के आदेश मे कुछ भी नया नही है ।


इस मामले मे सीबीआइ की तरफ से मुकदमे की पैरवी कर रहे अतिरिक्त साँलीसीटर जनरल ने जिस तरह ये कहा कि उन्हें न्यायाधिकरण के ताजा फैसले के सन्दर्भ मे सरकार के तरफ से कोई निर्देश नही मिले , इससे ये संदेह और गहराता है की जांच एजेंसी और शासन तंत्र ,दोनो मिलकर क्वात्रोची के मामले को दफन करने की तैयारी कर रहे है ।सीबीआइ की दलील से आदालत जिस नतीजे पर पहुँचे, आम जनता इस नतीजे पर पहँचने मे विवश है कि यह जांच एजेंसी केंद्रीय सत्ता की कठपुतली बन कर रह गई है ।

इसी तरह एक और बडा प्रकरण राष्टमंडल खेलो मे हुए घपलो और घोटालो का है ।राष्टमंडल खेल समिति के महासचिव ललित भनोट समेत कुछ लोगो कि गिरफ्तारी हो जाती है,लेकिन पूरे आयोजन के लिए जिम्मेदार सुरेश कलमाणी से पूछताछ के लिए सीबीआइ को समय लेना पड रहा है ।ये सीबीआइ और सरकार की ऐसे भ्रष्टाचारी पर कुछ ज्यादा ही दरियादिली क्या समझने को मजबूर करता है ? कालमाणी के घर छापे मारने मे देरी कि गई जिससे उन्हे सबूतो को छिपाने और नष्ट करने का समय मिल गया ।

इसी तरह ए॰ राजा के घर भी छापा मारने मे देरी की गई । यह स्पष्ट है की ये अलिखित विशेषाधिकार बन गया है कि बडे लोगो के खिलाफ नरमी बरती जाए और उन्हे उनकी सुविधा के माकूल बचने का अवसर दिया जाए।कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है की आज सीबीआइ एक बंधक के रूप मे कार्य कर रही है जो बहुत ही निन्दनीय है । मेरे विचार से भ्रष्टाचार के मामलो की जांच कर रही वर्तमान सीबीआइ अक्षम है । यहाँ हमे इन बातो का ध्यान रखना होगा कि भ्रष्टाचार मामले मे कौन-कौन लोग जिम्मेदार है ? अधिकांशतः ऐसे बडे भ्रष्टाचार बडे लोग ही करते हे जो बडे पदो पर या बडे राजनेता होते है,जो प्रत्यक्ष या अप्रत्क्ष रुप से सत्ता से जुडे होते हे ।

ऐसे मे सरकार के नियंत्रण मे काम करने वाली कोई एजेंसी सरकार से प्रभावित हुए बिना कैसे कार्य कर सकती है ।सीबीआइ किसी मामले कि स्वतः जांच नही कर सकती । ऐसे मे उन्हे सरकार से अनुमति लेनी होती है और यदि मिलती भी है तो काफी देर से जिससे अपेक्षीत परिणाम नही निकल पाता । सीबीआइ की विश्वसनीयता रखने और अधिक प्रभावी बनाने के लिए जरुरी है की इसे चुनाव आयोग से भी ज्यादा स्वायत्तता मिले ।इसे किसी मामले की स्वतः जांच का अधिकार हो और इसकी कारवाई मे राजनीतिक दखलंदाजी न हो । तभी जाकर हम इस जांच एजेंसी को अधिक प्रभावी बना कर निष्पक्ष जांच की उम्मीद कर सकते हे ।

Saturday, January 1, 2011

' नीतीश मंत्र '



नीतीश की जनता के दिलो मे रहकर राजनीति करने की अदा काफी लोकप्रिय हो रही है, तभी तो बिहार की जनता एक बार फिर उन्हे बिहार का मुख्यमंत्री बनाकर बिहार के विकाश का जिम्मा सौंपा है । नीतीश जनता के विश्वाश मे खरा भी उतर रहे है ।
नीतीश के द्वारा अपने और मंत्रीयो के सम्पत्ति का ब्योरा सार्वजनिक करने का फैसला सभी राज्यो मे चर्चा का विषय बना हुआ है । जनता चाहती है कि बिहार ही नहीं पूरे भारतवर्ष मे मंत्री ,अधिकारी और लाभ के पदो पर बैठे लोग अपने सम्पत्ति को सार्वजनिक करे तभी कुछ दिनो पहले हुए घोटालो जैसी घटना से देश को बचाया जा सकता है
सम्पत्ति सार्वजनिक करने का फैसला नीतीश सरकार का काबीलेतारीफ है,इससे सरकार भ्रष्टाचार मे लिप्त मंत्रियो और अधिकारियो पर कारवाई कर भ्रष्टाचार को कम कर सकती है । ये बात जानकर हैरानी होती है कि बिहार ऐसा पहला राज्य है , जो अपने मंत्रियो की सम्पत्ति का ब्योरा सार्वजनिक कर रहा है।

अगर केन्द्र सरकार सम्पत्ति सार्वजनिक करना हर राज्य मे अनिवार्य कर दे तो ,लाभ के पद पर बैठे लोग रिश्वत लेने से बचेगें जिससे भ्रष्टाचार कम होगा । केन्द्र सरकार को अगर ए॰ राजा प्रकरण और कलमाणी द्वारा किये घोटालो जैसी घटना से देश को बचाना है तो ऐसे क्रांतिकारी फैसले लेने मे संकोच नहीं करना चाहिए।

नीतीश की दूरगामी सोच से हम ये अनुमान लगा सकते है कि वे एक अच्छे और कुशल राजनेता है । वे बिहार पर पाँच वर्ष शासन करने के बाद आत्मविश्वास से भरपूर होकर ऐसे फैसले लेने मे संकोच नहीं कर रहे है जो बिहार की जनता के लिए खुश होने वाली बात है । वे दिन दूर नहीं जब बिहार भी एक सम्पन्न राज्य की श्रेणी मे आ जायेगा ।
नीतीश का राज्य करने और विकाश करने का जो मंत्र है कि पहले अपने मंत्रीमण्डल मे शामिल मंत्रियो को सुधारा जाए और वो अपने क्षेत्रो मे जाकर जनता के समस्याओ को सुने और उसे हल करने का कोशिश करें । जो उनकी सोच आज एक विकाश पुरुष की बन गयी है वो उनके बेधडक और जानता के हित मे लेने वाले फैसले के ही कारण सम्भव हो पाया है ।

विकाश पुरुष नीतीश जिस प्रकार तेजी से राजनीति मे उपर उठ रहे है,और जनता से जुडे फैसले ले रहे है उन्हे देखते हुए हम अगर उन्हे भविष्य का प्रधानमंत्री का प्रबल दावेदार कहें तो गलत न होगा । हमारे देश को ऐसे ही विकाश पुरुष की जरुरत है जो हर एक वर्ग को देखते हुए और उनके हित मे फैसले ले और वो वर्तमान मे नीतीश ही नजर आ रहे है ।।

मनरेगा की महामाया

केन्द्र सरकार द्वारा चलाये महत्वाकांक्षी योजना मनरेगा के पीछे सरकार का कुछ और मापदण्ड था, कि गांव से पलायन होकर लोग जीविकापार्जन के लिए शहर के ओर जा रहे है, अगर गांव मे ऐसी योजना लागू कि जाए जिससे लोग गांव मे ही रोजगार पा जाए और अपनी जीविका चला ले जिनके लिए सरकार ने हर वित्तीय वर्ष लोगो को १०० दिन का रोजगार दिलाने का वादा किया था । लेकिन जीविका दिलाने वाली इस योजना मे प्रधानो, ग्राम विकाश अधिकारियो जैसे लोग मिलकार इस योजना मे भ्रष्टाचार फैला रहे है । ग्राम प्रधानो ने तो इस योजना को कमायी का साधन बना लिया है ।
बीते कुछ महीनो मे ग्राम प्रधानो के चुनाव मे प्रत्याशी अपने समर्थको मे खुब पैसा खर्च किया । वे जानते थे कि प्रधान बनते ही केन्द्र द्वारा दिए राशी से वे खर्च किये पैसे से कही ज्यादा कमा लेगें , जो व्यक्ति चुनाव हार गया वो अपनी किस्मत को कोश रहा है,और जो नवर्निवाचित प्रधान है वो इस योजना मे फर्जी जाँब कार्ड,फर्जी कागजात बनाकर जनता और सरकार को मूर्ख बना रहे है । प्रधान अधूरे कामो को पूरा दिखाकर अपने खातो से पैसा उतारकर कमायी कर रहे है । अगर मनरेगा जैसे योजना मे केन्द्र सरकार जितना पैसा लगा रही है अगर गम्भीरता पू्र्वक उस पैसे को विकाश मे लगाया जाए तो गांव को चुस्त-दु्रुस्त बनाया जा सकता हैं ।

सरकार जानती है की अगर देश को पूरी तरह विकसित राष्ट बनाना है तो पहले नीचे से ही प्रयास करना होगा,अगर पंचायतो के माध्यम से ब्लाको का विकाश किया जाए तो जिलो के विकाश का रास्ता खुद ब खुद साफ हो जाएगा अगर हम जिलो का विकाश करने मे सफल रहे तो राज्य का विकाश स्वयं हो जायेगा ।सरकार की सोच सराहनीय है लेकिन सरकार को कोई भी योजना लागू करने से पहले एक कमेटी गठित करनी चाहिए जो उसके द्वारा बनाए योजना को सफल बनाने और इसमे फैले बुराईयो को नष्ट करने मे सहायक सिद्व हो सके । लेकिन सरकार ,सरकारी धन का दु्रुपयोग होते किंकर्त्तव्यविमुख होकर देख रही है,और लोग सरकारी धन को अपने जेबो मे भर रहे है जो कि देश और समाज के लिए शर्म की बात है ।

लोग पंचायत जैसे छोटे स्तर पर हो रहे भ्रष्टाचार को देखते हुए भी कुछ करने का प्रयास नहीं कर रहे है जो आज समाज के लिए नासूर बन गया है और आज यही भ्रष्टाचार पंचायत से उठ कर हमारी राजधानी दिल्ली तक पहुँच गई है, अगर हम इस भ्रष्टाचार को वही खत्म कर देते तो आज भारत को इन खरबो के घोटालो से बचाया जा सकता था । जो २जी स्पेक्ट्रम,कामनवेल्थ खेलो मे कमाये धन जो आज काला धन बन कर स्वीश बैंको मे शोभा बढा रहे है उन पैसो को हम रोक कर भारत की आर्थिक स्थिति को और मजबूत बना सकते थे और भारत मे फैले बेरोजगारी को कुछ हद तक कम कर सकते थे सरकार अपने द्वारा बनाये इन योजनाऒ मे फैले भ्रष्टाचार को जल्दी दूर करे नहीं ये योजना बस कमायी की योजना बन कर रह जाएगी ।

सरकार अपने द्वारा चलाये इन महत्वाकांक्षी योजना मे फैले भ्रष्टाचार को जल्दी दूर करें नही ये योजना बस कमायी की योजना बन कर रह जाएगी । सरकार को मनरेगा मे फैले भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए नए कानून बनाकर दोषियो पर कारवायी करना चाहिए और इस योजना मे कुछ ऐसे नए कानून बनाए जिससे सरकारी धन का दूरउपयोग न हो सके और योजना का लाभ केवल लाभार्थी को ही मिले नहीं ये योजना मनरेगा न रहकर सरकारी धन की महामाया बनकर रह जायेगी ।