Wednesday, October 7, 2009

अनसुलझी वो ..........

मुझमें ढूढ़ती पहचान अपनी


बार बार वो ,


जान क्या ऐसा


था


जिसकी तलाश थी उसको ,


अनसुलझे सवाल को


लेकर उलझती जाती


कभी मैंने साथ


देना चाहा था


उसकी खामोशियों को,


उसके अकेलेपन को ,


पर


वो दूर जाती रही


मुझसे ,


अचानक ही एक एहसास


पास आता है


बंधन का


बेनाम रिश्ते का ,


जिसमें दर्द है ,


घुटन है ,


मजबूरियां है,


शर्म है ,


तड़प है ,


उम्मीद है ।मैं समझते हुए भी


नासमझ सा


लाचार हूँ


उसके सामने


शायद बयां कर पाऊं कभी


उसको अपने आप में ।

No comments:

Post a Comment